लखनऊ : दुनिया, इंसानी सोच के एक अजीब दौर से गुज़र रही है | एक तरफ तो इंसान इतनी तरक़्क़ी कर चुका है कि इस दुनिया से निकल कर दूसरी दुनियाओं की तलाश कर रहा है तो दूसरी तरफ अपने दरम्यान ही सच की तलाश को फिज़ूल समझ चुका है | समाज में लगातार खेमों पर खेमें बनाए जा रहे हैं | किसी भी बात को सुनने के बाद सोचने की आदत ख़त्म हो चुकी है | कही गयी बात के वज़न और मक़सद को नज़रअन्दाज़ कर, कहने वाले का ख़ेमा देखकर या तो उसकी अंधी हिमायत में जुमले गढ़े जाते हैं या उसकी अंधी मुखालफत में | हक़ और सच्चाई को तलाशने की कोशिश को कोई तैयार नहीं है | दुनिया और मुल्क की सियासत से लेकर समाज और यहाँ तक की इंसान के घरों तक में दरम्यानी दीवारें बहुत तेजी से ऊंचाई हासिल कर रही हैं | एक अजीब धुन सवार हो चुकी है कि जिसको भी पसंद कर लिया है उसे आख़िरी सच बना देना है और जिसे नापसंद कर लिया हैं उसे हर हाल में झूठ साबित करना है | दुनिया की इस अंधी दौड़ में इंसानियत और हक़ जैसे लफ्ज़ अपना मतलब और मक़सद तलाश कर रहे हैं | जो इंसान इन लफ़्ज़ों के साथ इंसाफ करने की जरा सी भी कोशिश करता है उसे इस दुनिया में जीते जी ख़त्म करने के लिए हर तरफ से लफ़्ज़ी और फितरी हमले किये जाते हैं | वो शख़्स अपने तमाम रिश्तों और ताल्लुक़ात के दरम्यान रहकर भी बेगाना बना दिया जाता है |
तो अब हक़ और सच्चाई से आशना इंसानों को क्या करना चाहिए ? क्या सोच की इसी कीचड़ के बहाव के साथ बह जाना चाहिए | हक़ और इंसानियत के उसूलों और अमल को सैकड़ों टन कीचड़ के नीचे दबा देना चाहिए या फिर इस कीचड़ की बाढ़ के सामने तनकर खड़े हो जाना चाहिए और जिंदगी के आख़िरी लम्हे तक इस अंधी बुराई का सामना करना चाहिए | ये हिम्मत बहुत महंगी भी हो सकती है शायद अनजान मौत या शायद बदनाम मौत लेकिन ऐसा महसूस होता है कि इस बहाव के खिलाफ खड़े होना ही बेहतर है क्योंकि अक्सर जो इंसान जीते जी नहीं कर पाता है वो उसकी बहादुर मौत कर जाती है | दुनिया के इतिहास में ऐसी कई मिसालें मौजूद हैं कि जब चंद हक़परस्तों की बहादुरी से भरी मौतों ने पूरे समाज के सोचने के तौर तरीक़ों को सदियों के लिए बदल दिया है |
तो आइए, अपने आप से वादा कीजिये कि हमें भी हक़ की तलाश करनी है और बुराई के खिलाफ़ खड़े होना है, चाहे कीमत कुछ भी चुकानी पड़े चंद रिश्ते, हाथ बदलती दौलत या फिर दिखावे की इज़्ज़त क्योंकि हमारी ज़िंदगी का आख़िरी मक़सद दुनिया की अश्या नहीं बल्कि इंसानियत होनी चाहिए | तो आइए, इंसानियत के खातिर हक को पहचानें, हक़ के लिए बोलें और ज़रूरत पड़े तो हक़ के लिए आख़िरी क़ुर्बानी तक देने को तैयार रहें क्योंकि हमें इंसान के तौर पर ज़िन्दगी दी गई है जानवर के तौर पर नहीं |
क़मर अब्बास सिरसिवी