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नदी का सफर सागर तक

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चिराग जैन लेखक

कविता लिखना और कविता को जीना दोनों अलग अलग बातें हैं।

प्रज्ञा शर्मा इन दोनों में ही पूरी तरह पारंगत हैं। मैं अपने दौर में एक ऐसा सम्पूर्ण रचनाकार तलाशने निकला जो तन मन आचरण और क़लम से ख़ालिस कवि ही हो तो मेरी तलाश के हर सिरे पर प्रज्ञा शर्मा खड़ी मिलीं।

उन्हें देखकर समझा जा सकता है कि भीतर से बाहर तक कवित्व को जीने वाले व्यक्ति का व्यक्तित्व कैसा हो सकता है। उन्हें देखकर यह भी समझा जा सकता है कि अपनी आवश्यकताओं को दरकिनार करके भी दूसरे की सहायता के लिए उपस्थित रहने वाले निराला कैसे रहे होंगे। प्रज्ञा अपने आचरण से यह भी बताती हैं कि कठौती में गंगा का अवतरण करने के लिए जिस चंगे मन की दरकार है वह कैसा होता होगा।

न कोई भय न कोई लाग लपेट न कोई लोभ न कोई छल और न ही कोई दिखावा। आवरण बनावट

महत्वाकांक्षा जैसे शब्दों का तो जैसे उन्होंने अपने व्यवहार से कभी परिचय ही नहीं करवाया।

गीता में वर्णित स्थितप्रज्ञ की भाँति हर स्थिति में प्रज्ञा प्रज्ञा ही रहती हैं। वे न तो अपने कवि को अपने व्यक्तित्व पर हावी होने देती हैं न ही अपने स्त्रीत्व को।

प्रज्ञा का प्रज्ञा बने रहना उनके जीवन की न्यूनतम आवश्यकता है। इसके बिना वे कुछ भी नहीं कर पातीं। और इसके पूर्ण होने पर उन्हें कुछ और करना

         प्रज्ञा शर्मा

आवश्यक नहीं लगता। इसी कारण इस शर्त को पूर्ण करते हुए वे जो कुछ करती हैं वह बिल्कुल निस्पृह होता है। उसके मूल में कुछ पा लेने की आकांक्षा नहीं होती उसके पार्श्व में किसी प्रशंसा की अपेक्षा नहीं होती उसके साथ किसी उपार्जन की चाहत नहीं होती।
सो जो कुछ वे करती हैं वह पूर्ण होता है। वह ईश्वर के अर्घ्य में समर्पण करने जितना पवित्र होता है।
अपने जीवन के संघर्ष को वे एक खिलखिलाहट में हवा कर देती हैं। और यह खिलखिलाहट वे दुनिया के समक्ष नहीं बल्कि अपने आप के समक्ष बिखेरती हैं। ज़िन्दगी के मुश्किल दौर के मुँह पर बेफ़िक्री का धुआँ उड़ाती हुई, वे बेफिक्री से आगे बढ़ जाती हैं।

वे स्वयं के होने का अर्थ जानती हैं। इसलिए अपने जीवन को भरपूर जीने की कला में पारंगत हैं। सिगरेट को प्रतीक बना कर सर्वाधिक शायरी करने वाली शायरा हैं प्रज्ञा शर्मा। उनकी शायरी में सिगरेट के आख़िरी कश का लम्स भी मौजूद है और राख के मुक़द्दर की बेकद्री भी। इस विषय पर उनके कुछ शेर देखें

वफ़ा का इससे ज़ियादा सबूत क्या देती
मैं राख हो तो गई उसकी सिगरटों की तरह

बुझ चुकीं सिगरटों की तरह ख़्वाहिशें
मेरे माहौल में अब धुआँ भी नहीं

देख कर सितारों को मुझको तो ये लगता है
दूर आसमानों में सिगरटें सुलगती हैं

प्रज्ञा शर्मा इस समय मुम्बई में हैं। कानपुर और दिल्ली के तटबंधों में जब इस नदी का बसेरा न हो सका तो यह मुंबई के सागर तक आ पहुँची।

ज़िन्दगी को लम्हा लम्हा जी लेने से जो वक़्त बच जाता है उसमें प्रज्ञा क़लम उठा लेती हैं। उनकी लेखनी से कविता लिखी नहीं जाती बल्कि बहती है। उनकी नज़्मों में जो रवानी देखने को मिलती है वह सामान्यतया साधना से हासिल नहीं की जा सकती है। वह तो रचनाकार के भीतर ही घटित होती है। जब जीवन की लय भीतर के अनहद नाद से एकाकार हो जाए, तब कहीं रचनाओं में ऐसी रवानी आ सकती है।
प्रज्ञा से मिलने से पहले मुझे सेल्फ मेड पर्सनेलिटी का अनुभव नहीं था। प्रज्ञा से मिलने के बाद मुझे इस बात का एहसास हुआ कि यदि मनुष्य ने अपना निर्माण करते समय उस निर्माण की मिट्टी में दुनियावी नियमों की मिलावट न करे तो प्रज्ञा जैसी शख्सियत हासिल हो सकती है।

मुम्बई की काव्य गोष्ठियों से लेकर देश दुनिया की नशिस्तों तक प्रज्ञा शर्मा किसी ख़ुदख़ुश शायरा की तरह अपना क़लाम पढ़ते देखी जा सकती हैं। कभी मौक़ा मिले तो इस बेशक़ीमती शख्सियत के साथ कुछ पल बिना किसी काम के बैठियेगा आपको महसूस होगा कि कबीर हो जाने के लिए जिस फुरक़त की ज़रूरत होती है वह इसी लम्हे का नाम है।

गोपाल दास नीरज की हस्तलिखित कविताएँ नाम से उनकी एक किताब 2019 में प्रभात प्रकाशन दिल्ली से प्रकाशित हुई थी और अभी इसी वर्ष 2021 मई में आपकी दूसरी किताब मौत का ज़िन्दगीनामा रेख़्ता प्रकाशन से आई है।

 

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