लखनऊ: आग़ाज़ ए मुहर्रम के साथ साथ पुरानी विरासत और नये ख़्यालातों का एक और दौर शुरू होगा जिसमें मुहर्रम मे होने वाली अज़ादारी पर इस्लाही नज़रिए से ग़ौर करने के बजाय सिर्फ ख़ुद को सही और दूसरों को ग़लत साबित करने की होड़ होगी जबकि सही रास्ता अक्सर दरमियान में होता है।
हर मज़हब में इंसानी मुआशरे को बेहतर से बेहतरीन बनाने के मक़सद से किसी ख़ास दिन या कुछ ख़ास दिनों को एक बेमिसाल यादगार से जोड़ दिया जाता है और उस यादगार के अख़लाक़ी और इंकलाबी पहलूओं को बार बार मुआशरे के सामने रखकर इंसान को बेहतरीन अमल की दावत दी जाती है। इस्लाम में रमज़ान को इंसानी अहसासात से रुबरु कराने के लिए इस्तेमाल किया जाता है तो ईद को ख़ुशियाँ बांटने की रविश को आम करने के लिए। इसी तरह मुहर्रम मुआशरे में ज़ुल्म को बेनक़ाब करने और ज़ालिम की हरहाल में मुख़ालफ़त करने के जज़्बे को इंसानी फितरत में शामिल करने के मक़सद को पूरा करता है।
ये एक कड़वी हक़ीक़त है कि रसूल स० के दुनियावी सफर के तमाम होने के 50 साल के अरसे में ही आप स० के अहले ख़ाना को नामनिहाद मुसलमानों ने अपने ज़ुल्म का निशाना बना कर ख़त्म कर दिया जबकि रसूल स० ने अपनी हयात में ही मुसलमानों को ऐसे ज़ुल्म से बाज़ रहने की हिदायतें दी थी। इस ज़ुल्म की इंतेहा कर्बला में हुई जहाँ रसूल स० के नवासे और फरजंद ए रसूल के लक़ब से मशहूर इमाम हुसैन अ० को उनके भाईयों, बेटों, भतीजों, भांजों और साथियों के साथ क़त्ल कर दिया गया, उनकी लाशों पर घोड़े दौड़ाए गयें और उनके सिरों को काटकर नेज़ों पर बुलंद किया गया। ये ज़ुल्म यहीं नहीं रुका बल्कि आगे बढ़कर उनके ख़ेमे के बच्चों, औरतों और बीमारों को क़ैद करके दर बदर तमाशा बनाया गया। मुहर्रम की अज़ादारी मुआशरे में इसी ज़ुल्म को बेनक़ाब करने और ज़ालिम की मुख़ालफ़त का जज़्बा इंसानी दिलों में उतारने के मक़सद से अंजाम दी जाती है।
इस बात को और बेहतर ढंग से समझने के लिए कर्बला के पसमंज़र को समझना ज़रूरी है। उस दौर का एक अय्याश, शराबी और ज़ालिम बादशाह यज़ीद, नवासे ए रसूल इमाम हुसैन अ० से अपनी ग़लत रविश को सही कहलवाना चाहता था और इंकार की सूरत में क़त्ल का ख़ौफ़ सामने रखवा रहा था। इसी शैतानियत को बेनक़ाब करने के लिए इमाम हुसैन अ० ने घर और वतन से निकलकर आवाज़ बुलंद की और बहुत कम साथी होने के बावजूद ज़ुल्म और बातिल की बड़ी कसरत से टकरा गये। ज़ाहिरी अंजाम तो मौत और क़ैद हुएं लेकिन दायमी और बातनी अंजाम, आज तक ये दुनिया देख रही है कि ज़ालिम पर मुसलसल लानत हो रही है और मज़लूम पर लातादाद सलाम भेजे जा रहे हैं।
करबला के इसी पसमंज़र को अज़ादारी की शक़्ल में हर साल मुहर्रम मे ताज़ा किया जाता है और याद दिलाया जाता है कि ज़ालिम शख़्स दुनिया पर कुछ अरसे तक ज़ाहिरी हुकूमत तो कर सकता है लेकिन इंसानी मुआशरे के दिलों पर दायमी हुकूमत हमेशा शरीफ़, बाअमल, सख़ी और रुहानी शख़्सियात की ही होती है।
ज़माने में बदलाव के साथ साथ कुछ वक़्त से इस नज़रिए को ख़त्म करने की कोशिश की जा रही है और इसके लिए अज़ादारी के तौर तरीक़ों में आईं चंद तब्दीलियों को इस्तेमाल किया जा रहा है। माद्दियत के बढ़ते असर की वजह से अज़ादारी में यक़ीनन कुछ कोताहियां सामने आईं हैं लेकिन मुआशरे को याद रखना चाहिए कि अज़ादारी की ज़ाहिरी शक्ल में आईं चंद तब्दीलियाँ, अज़ादारी के मक़सद को नहीं बदल सकती हैं। जो लोग मक़सद ए कर्बला से दूर होकर माद्दियत के ज़ेरे असर, दौलत ओ ताक़त की नुमाइश और अनानियत को अज़ादारी से जोड़ने की ग़लती कर रहे हैं वो लोग भूल रहे हैं कि इमाम हुसैन अ० ने ना सिर्फ दौलत और ताक़त के नशे में चूर, अनानियत पसंद यज़ीद को शिकस्त दी थी बल्कि क़यामत तक के लिए एक उसूल दिया था कि मेरे जैसा कभी तेरे जैसे की बै’अत नहीं कर सकता ।
इसलिए याद रखिये हमें रस्म, माद्दियत और अनानियत से दूर अज़ादारी ए हुसैन अ० को मुआशरे की ज़रूरत के तौर पर आगे बढ़ाना है जिससे इंसानी ज़हनों को मुसलसल बेदार करके अगली नस्लों को बेहतरीन मुआशरा दिया जाता रहे।
या हुसैन अ०
ख़ादिम
क़मर अब्बास सिरसीवी